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Success Stories




 Case Studies / Success Stories 2019-20


 Success Stories/Cases of agricultutal technology adoption and spread across the agro-climatic zones of Uttar Pradesh during 2019-20


 Success Stories/Cases of agricultutal technology adoption and spread across the agro-climatic zones of Uttar Pradesh during 2015-16 and 2016-17


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Ornamental plant entrepreneur - J.P.Singh, A Success Story

Muzaffarnagar, an agriculturally dominant district in western Uttar Pradesh has a predominance of Sugarcane based cropping system. Though, this crop has major share in this district, but sugarcane growers find it hard to fulfill their economic requirements for day to day life. As a result, the younger generation is getting lesser attracted towards sugarcane cultivation partly because of above reason and partly because of non-availability of labour for farm operations. They are seeking for the alternate options of sugarcane based system which may offer better return to them.

The proximity of Muzaffarnagar district to National Capital Region (NCR) gives the district an advantageous position. Also, because of rapid infrastructure development during last 10 years in NCR has generated a huge demand of ornamental plants for aesthetic purposes.

A young farmer from this district Sh. J.P. Singh who is educated in horticulture and having personal contacts in Delhi got motivated in this direction. Considering the huge demand of ornamental plants in NCR, he started his own nursery on four acres of land during 1997.

Sh. J.P. Singh started with ornamental plants like Washingtonia palm, Bottle palm, Fish tail palm, Bamboos, Ficus topiary, etc. Other plants like Ashok Pendula, Champa (Alba) and Nickdevia were also added for production in his nursery. About 10 regular trained laboures were employed for day to day care of nursery. Mostly two types of demand were coming to him. Small but healthy plantlet were demanded by the city dweller and; big malls, residential townships and five star hotels demanded well-established ornamental plant with zero waiting period. Such big plants are booked in advance by the buyers. The plants are transferred in gunny bags at right time for proper establishment before transporting them to the planting site.

For plants like Ashok Pendula and Champa (Alba), he gets the average price of Rs 300-500 per sapling/cutting. For Nickdevia, the rate was Rs 1500/sapling. He is getting the still better market price of Rs 2000-3000 per plant for Fishtail Palm and Bamboos. Other ornamental plants like Washingtonia Palm and Bottle Palm are sold on the average price of Rs 3000-4000 per plant. The ready-to-use plant with zero waiting periods like Ficus Topiary fetches as high as Rs 10000-30000 per plant.

Now, Sh. J.P. Singh earns on an average of Rs. 30 lacs per year from 04 acres of land. He has improved his economic status and added several material wealth to his life. He has become a great source of inspiration to other nearby farmers and farm youth. As a result, 36 young farmers have taken guidance and training from Sh. Singh for cultivation of ornamental plants and till date, 32 young entrepreneurs have been developed on small scale in the locality. Sh. J.P. Singh has emerged as the role model for educated youth who wish to start business on ornamental plants. The rural youths trained by Sh. J.P. Singh are in great demand for beautification purpose in NCR. The Krishi Vigyan Kendra, Muzaffarnagar is extending full-fledged support in organizing such training programmes by Sh. J. P. Singh besides giving technical backstopping

(Source: Zonal Project Directorate (ICAR), Zone IV, Rawatpur, Kanpur, Uttar Pradesh)

जिला हरिद्वार, उत्तराखण्ड में किसान परम्परागत अकेले गन्ने की खेती करते हैं जो कि अलाभकारी है । अतः अतिरिक्त आय प्राप्त करने के लिए दलहन अंतः फसल पद्यति से ज्यादा लाभ कमाने की संस्तुतियाॅं है । इसी परिपेक्ष में उत्तराखण्ड में गन्ने की खेती लगभग 118000 हैक्टेअर क्षेत्रफल पर वर्तमान में की जा रही है । राज्य का लगभग आधा गन्ना अकेले हरिद्वार जनपद में उगाया जाता हैं। प्रदेष में गन्ने की उत्पादकता केवल 61 टन/ हैक्टेअर जो कि राश्ट्रीय उत्पादकता 68 टन/ हैक्टेअर से काफी कम है (सारणी 1 ) उत्पादकता कम होने के कारण किसानों को गन्ने की फसल में कुछ खास फायदा नही हो पाता है। लेकिन स्थानीय स्तर पर चीनी मिल होने के कारण आसानी से बाजार उपलब्घ हो जाता है।

प्रेरणा
राज्य में गन्ने की कम उत्पादकता को देखकर जनपद हरिद्वार के एक कृशि स्नातक युवक राहुल कुमार ग्राम लिब्बरहेडी ब्लाक नारसन, जो कि एक निजी क्षेत्र की पेस्टिसाइड कम्पनी में कार्य कर रहा था, केा सोचने पर मजबूर कर दिया । राहुल नौकरी छोड़ कर गाॅंव वापस लौट आया और सोचने लगा कि किस प्रकार वह अपने कृशि ज्ञान का प्रयोग कर पुष्तैनी खेती की जमीन से अच्छी पैदावार लेकर अपनी आर्थिकी को सुधार सकता है । एक दिन राहुल हरिद्वार के सम्पर्क में आया । केन्द्र पर उपस्थित कार्यक्रम समन्वयक व विशय वस्तु विषेशज्ञो से जनपद की जलवायु के अनुकूल छोटी जोत से अधिक लाभ लेने से सम्बन्धित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की । राहुल ने समझ लिया कि क्षेत्र की जलवायु के अनुकूल उत्तम फसल - चक्र एवं कृशि की नवीनतम पद्वतियों को अपनाकर खेती को लाभकारी सौदा बनाया जा सकता है ।

कार्य योजना
राहुल ने षुरूआत गन्ने की खेती से की । जनपद में गन्ने की बुवाई पुराने समय से ही पराम्परागत रेजर विधि से की जाती है जिसमें दो कतारों के बीच लगभग 60 से 75 सेमी का अन्तराल रखा जाता है । कुछ किसान तो 60 सेमी से भी कम दूरी पर गन्ने की बुवाई कर रहे हैं । राहुल ने गन्ने की भौतिक संरचना एवं बृद्वि हेतु आवष्यक तत्वों की उपलब्धता को समझते हुए परम्परागत रेजर के बजाए ट्रªेन्च विधि से बुवाई करना उचित समझा । कृशि विज्ञान केन्द्र के सहयोग से राहुल को गांव के पास में स्थित उत्तम चीनी मिल से ट्रेन्च ओपनर उपलब्ध कराया गया । पहले गन्ने की किस्म कोषाप 99214 का चुनाव किया, 9924 ट्रªेन्च ओपनर को इस प्रकार समायोजित किया गया कि दो ट्रªेन्चों के बीच की दूरी 120 सेमी रखी गयी । प्रत्येक ट्रªेन्च के किनारों पर गन्ने की दो पंक्तियों में बुवाई की गई । इस प्रकार गन्ने की पहली तथा दूसरी पंक्ति के बीच की दूरी 30 से0मी0, दूसरी तथा तीसरी के बीच 120 स0ेमी0 एवं तीसरी व चैथी के बीच की दूरी पुनः 30 स0ेमी0 रखी गयी । खरपतवार नियंत्रण के लिए खेत तैयार करते समय मिट्टी पलट हल से जुताई की जिससे पहली वाली फसल के खरपतवार नीचे जमीन में दब गये । दूसरी तथा तीसरी पंक्ति के बीच 120 से0मी0 के अन्तराल में उड़द (पी0 यू0 31) की बुवाई फरवरी अंत में की गयी । इस प्रकार गन्ने के साथ उड़द की 2ः2 में सहफसल ली गयी । कृशि विज्ञान केन्द्र के विशय वस्तु विषेशज्ञों द्वारा समय- समय पर भ्रमण कर आवष्यक समेकित फसल प्रबन्धन (खाद, बीज, सिंचाई, कीटनाषक) संस्तुतियां दी गयी । गन्ने में कीटनाष का छिडकाव करने हेतु राहुल द्वारा एक ट्रªेेैक्टर चालित मषीन विकसित की गई जो कि छोटे किसानों के लिए बहुत उपयोगी है ।

सारणी 1ः- देष के प्रमुख गन्ना उत्पादक राज्यों में गन्ने की स्थिति

परिणाम
उड़द की फसल फरवरी में बुवाई कर 65-70 दिन में पक गई तथा 10 कुन्तल प्रति है0 उड़द का उत्पादन प्राप्त हुआ । उड़द में नाइट्रोजन स्थिरीकरण का गुण होने के कारण कुछ नाइट्रोजन की पूर्ति इस सहफसल के द्वारा हो गयी जिससे खाद पर होने वाले व्यय में कुछ हद तक कमी आयी । ट्रªेन्च विधि से बुवाई करने पर जमाव में 20 से 25 प्रतिषत बृद्वि देखी गयी । साथ ही सहफसल के द्वारा मार्च - अपै्रल में नमी संरक्षित हुई जिससे कुछ मात्रा में सिंचाई जल की बचत हुई । इस विधि में गन्ने की एक कतार के दोनो तरफ पर्याप्त अन्तराल होने के कारण गन्ने को प्रचुर मात्रा में सूर्य की रोषनी तथा हवा मिली जिससे गन्ने की मोटाई एवं बढ़वार पहले की अपेक्षा अधिक देखी गयी । गन्ने की कटाई पर रिकार्ड उत्पादन 1280 कुन्तल प्रति है0 पाया गया ।

आय - ब्यय
राहुल कुमार का मुख्य उद्देष्य खेती को फायदा का सौदा बनवाना था ताकि आज का युवा गांव से मंुह न मोड़े । इसके लिए उसने खेत तैयार करने से लेकर चीनी मिल में गन्ने को पहुॅंचाने तक प्रत्येक खर्च का हिसाब रखा । गन्ने में रू0 1.0 लाख लागत लगती है, तथा षुद्व लाभ रू0 2.59 लाख मिलता है । इस प्रकार आय - ब्यय का हिसाब लगाने पर गन्ना व उड़द सहफसल खेती में लागत आय अनुपात 1ः2.49 पाया गया । जबकि अकेले उड़द से रू0 0.50 लाख का मुनाफा होता है तथा किसान को वोनस के रूप में अंतः फसल से मात्र 60 - 75 दिन में प्राप्त हो जाता है जो कि गन्ने की लागत का 50ः है । इस प्रकार क्षेत्र में गन्ने की खेती अलाभकारी कर रहे थे, तकनीक परिवर्तन से इतना अच्छा लागत आय अनुपात मिलना किसानों के लिए वास्तव में उत्साहवर्धक है ।

असर
राहुल द्वारा अपनाये गये ट्रेन्च विधि के अन्तर्गत इस माडल को राज्य में ही नहीं वरन् राश्ट्रीय स्तर पर भी प्रोत्साहित किया गया । अगले मौसम में जनपद के 500 से भी अधिक किसानों ( लगभग 500 एकड़ क्षेत्रफल ) ने ट्रेन्च विधि से गन्ने की बुवाई की । इसके साथ ही राहुल कुमार को आधा दर्जन से भी अधिक राश्ट्रीय एवं राज्य स्तर के पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया । कृशि युवा सम्मान - 2012, महिन्द्रा समृद्वि, इनोटिव फार्मर,, द्वारा भारतीय कृशि अनुसंधान परिशद, नई दिल्ली एवं उत्तराखण्ड गन्ना विकास एवं चीनी विभाग तथा प्रगतिषील कृशक काषीपुर द्वारा प्रमुख है । आज जब देष का युवा मैट्रो षहर में काम की तलाष में गांवों से पलायन कर रहा है, ऐसे में राहुल जैसे युवाओं द्वारा गांव की जिन्दगी को समृद्वषाली बनाना एक अच्छा उदाहरण है साथ ही कृशि क्षेत्र के लिए भी एक षुभ संकेत है ।

पानी की लगातार कमी एक अन्तर्राश्ट्रीय मुद्दा बन रहा है । सिंचित कृशि में पानी का उचित उपयोग आवष्यक है । प्रभावी रणनीति बनाकर पानी की एक - एक बूंद के प्रयोग से अधिक से अधिक उत्पादन किया जा सकता है । इसके लिए प्रभावी प्रबंधन तथा सीमित जल संसाधनों का संरक्षण तथा संरक्षित खेती ही भविश्य में बढ़ती हुई खाद्य की मांग के साथ पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़ने के लिए प्रभावी तरीका है जिसके द्वारा निवेष उपयोग दक्षता एवं किसानों की आमदनी को बढ़ाया जा सकता है, साथ ही उचित जल प्रबन्धन से ही फसलों की स्थिर पैदावार को सुधारा, मृदा पूननिर्माण तथा जैव विविधता तथा प्राकृतिक संसाधनो का संरक्षण किया जा सकता है ।

क्ृशि विज्ञान केन्द्र, प्रतापगढ़ द्वारा गेहूॅं में जीरो टिलेज तकनीकी का प्रयोग वर्श 2001 में षुरू किया गया तथा विधिवत रूप से इसको अपनाने पर सन् 2009 में अध्ययन किया गया । अध्ययन में किसानों की समस्याओं के लिए सर्वे किया गया तथा यह जाना गया कि तकनीकी के बारे में उनका निर्णय तथा इसको अपनाने के लिए तकनीकी कारक क्या - क्या थे घ् सर्वे के उपरांत किसानों की सहभागिता से तकनीकी प्रदर्षन, ट्रेवलिंग सेमिनार, प्रक्षेत्र दिवस तथा किसान गोश्ठी का आयोजन किया गया । सर्वे के आधार पर अॅंाकडे एकत्रित कर विष्लेशण किया गया तथा तकनीकी का प्रभाव विभिन्न कारकों पर देखा गया । जीरो टिलेज एक संसाधन संरक्षित तकनीक है जो बीज, समय तथा ऊर्जा जैसे निवेषों की बचत छोटे किसानों के लिए करता है । जीरो टिलेज तकनीक का पहली बार प्रयोग जिला प्रतापगढ में धान - गेहूंॅ फसल पद्वति मेे वर्श 2001 मेें किया गया । तकनीकी का उपयोग एक गाॅंव के चार किसानों से बढ़कर वर्श 2009 में जनपद के 876 गाॅंवों के 11655 किसानो तक होे गया जो कि वर्श 2001 से लेकर वर्श 2009 तक लगातार क्षेत्रफल, गांवों की संख्या तथा किसानो की संख्या में दर्षाती है (तालिका 1)

टेवुल -1ः जीरो टिलेज तकनीक का क्षैतिज विस्तार

इस प्रकार जीरो टिलेज टेक्नोलाजी का प्रभाव जिले के किसानों के बीच में निरन्तर बढ़ता हुआ देखा गया जो कि ज्ञानवर्धक, इको- फ्रेन्डली, लाभदायक तथा सामाजिक रूप से स्वीकार्य है । इस तकनीक के अन्तर्गत लगभग 13000 है0 क्षेत्रफल आच्छादित हो चुका है । वर्श 2009 तक ज्यादातर किसान जीरो टिलेज तकनीक के बारे में बताते हैं कि यह तकनीक पर्यावरण संगत है, इसके द्वारा 84.17ः तक तेल, 80ः बुवाई का समय, 78.33ः सिंचाई जल तथा 63.33ः खरपतवारों को कम किया जा सकता है । इसी तरह के परिणाम सिंह आदि (1997) द्वारा दिये गये, उन्होने 83.44ः समय तथा 80.93ः तेल बचत दर्षाया । इस तकनीकी द्वारा गुल्ली डंडा जैसे खरपतवार का प्रभाव 59.77ः व अन्य खरपतवारों में 33.33ः कमी पायी गयी । इस तकनीकी के ऊपर एक प्रक्षेत्र परीक्षण किया गया, जिसका आॅंकड़ा तालिका 2 में दिखाया गया है । परिणाम, यह दर्षाता है कि जीरो टिलेज तकनीक द्वारा कम ऊर्जा व पैसा लगाकर अधिक पैदावार प्राप्त की जा सकती है जो कि स्थानीय विधि की तुलना में अधिक थी ।

जीरो टिलेज परिणामांे के आधार पर यह देखा गया है कि प्रक्षेत्र में गुल्ली डंडा खरपतवार का जमाव कम था ऐसा इसलिए हुआ कि स्थानीय तकनीक की तुलना में जीरो टिलेज में खरपतवारों के बीज गहरी सतह पर पाये जाते हैं ।

जीरो टिलेज तकनीक से गेहूॅं की बुवाई धान की कटाई के तुरन्त बाद हो जाती है जो कि फसल की अच्छी बृद्वि, विकास एवं पैदावार में सहायक होती है । यह तकनीकी षैनेः षैनेः जिले में मषहूर हो रही है और इसका फेैेलाव जिले में बढ़ता जा रहा है । अधिक से अधिक किसान इस तकनीकी का लाभ ले रहे हैं ।

देश की बढ़ती जनसंख्या के मद्देनजर सीमित संसाधनों का समुचित उपयोग व प्रति इकाई प्रक्षेत्र उत्पादन टिकाऊ खेती के महत्वपूर्ण आयाम हैं। वर्तमान मंे किसानों द्वारा कृषि निवेशों का अन्धाधुन्ध प्रयोग एवं संसाधनों का दोहन एक चिंता का विषय है। आंकडे़ दर्शाते हैं कि किसानों द्वारा रासायनिक उर्वरकों का असंतुलित प्रयोग 15ः15ः1 नत्रजनःफास्फोरसःपोटाश तथा सिंचाई हेतु भूमिगत पानी के अत्यधिक उपयोग का प्रतिकूल प्रभाव मृदा व जल स्वास्थ्य पर पड़ा है। फसलों एवं प्रक्षेत्रों का समेकित प्रबंधन एक प्रभावी विकल्प के रूप में सामने आ रहा है जिसमें प्रक्षेत्र स्थित सभी जैविक एवं अजैविक कारकों, किसानों के संसाधनों तथा उत्पादन के बाहरी निवेशों का समुचित सम्मिश्रण द्वारा प्रक्षेत्र की प्रति इकाई उत्पादकता बढ़ाई जा सकती है तथा खेती में टिकाऊपन लाया जा सकता है। इस लेख में उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड क्षेत्र के जालौन जनपद में एक किसान द्वारा समेकित खेती प्रबंधन तथा जैविक खाद के सफल उपयोग को दर्शाया गया है।

कृषक परिचय

श्री अशोक कुमार सिंह, पुत्र स्व. अवधेश कुमार सिंह, ग्राम-मड़ोरी जनपद जालौन, बी.एस.-सी (कृषि) सन् 1981 में पास किया, तत्पश्चात एम.ए. अर्थशास्त्र (1983) में किया। उनकी शादी सन् 1983 में श्रीमती सुमन सेंगर के साथ हुई जो कि एम.ए. संस्कृत से थी। श्री सिंह ने सन् 1983 में स्टेट बैंक आॅफ बीकानेर एवं जयपुर ट्रांसपोर्ट नगर शाखा कानपुर में नौकरी की। उनके पास 40 एकड़ कृषि योग्य उपजाऊ आंशिक सिंचित भूमि है। वे तीन भाई हैं तथा सभी भाइयों में बड़े हैं। परिवार में बड़ा होने के नाते घर में समस्यायें होने लगी इसके बाद उन्होंने बैंक की सेवा से 1986 में त्यागपत्र देकर घर वापस आकर खेती-बाड़ी में व्यस्त हो गये। कृषि स्नातक होने के कारण खेती में विशेष रुचि लेने लगे। सन् 2005 में जनपद जालौन में कृषि विज्ञान केन्द्र की स्थापना हुई। केन्द्र द्वारा वैज्ञानिक सलाहकार समिति के सदस्य के रूप में नामित किया। केन्द्र के माध्यम से उन्हें समेकित प्रक्षेत्र प्रबंधन की जानकारी मिली तथा अन्य कृषि विधाओं को सीखा। कृषि सम्बन्धी मशीनरी जैसे ट्रैक्टर, हैरो, कल्टीवेटर, बीज विधायन मशीन, बीज उपचार हेतु मशीन आदि उपलब्ध है।

समेकित खेती का अंगीकरणः

पशुपालन

अपने 40 एकड़ प्रक्षेत्र पर मौसमी खाद्यान्न फसलों के अलावा श्री सिंह ने हाल्सटिन फ्रीजियन नस्ल की चार गायों को पाल रखा है जिससे उन्हें प्रति दिन औसतन 20-25 लीटर दूध प्रति गाय प्राप्त होता है। इस प्रकार प्रतिदिन कुल उत्पादित 100 लीटर दूध में 80 लीटर दूध रु. 20/लीटर की दर से बेच देते हैं। दूध से रु. 25-30 हजार प्रति माह प्राप्त हो जाती है। गायों से प्राप्त गोबर का वर्मीकम्पोस्ंिटग करके प्रतिवर्ष लगभग 2000 कु. जैविक खाद उत्पादन करते हैं जिसका प्रयोग अपने प्रक्षेत्र पर करते हैं। गोबर का उपयोग घर स्थित बायोगैस संयंत्र में करते हैं जिससे प्राप्त ईंधन का उपयोग खाना पकाने के लिए किया जाता है। बायोगैस संयंत्र से प्राप्त स्लरी को फसलों में प्रयोग करते हैं जिससे मिट्टी की उर्वरता में वृद्धि होती है।

बागवानीः

श्री सिंह ने एक हेक्टेयर प्रक्षेत्र पर आंवला तथा अमरूद का मिश्रित बगीचा लगाया है। इससे प्राप्त फलों को स्थानीय बाजार में बेचकर तकरीबन रु. 15-20 हजार प्रतिवर्ष की अतिरिक्त आमदनी प्राप्त होती है जिससे प्रक्षेत्र खर्च में मदद मिलती है। प्रक्षेत्र पर एक मेंथा विधायन इकाई भी स्थापित की है जिसकी क्षमता 24 घंटे में 125-130 लीटर तेल प्रसंस्करण करने की है। अन्य किसानों से रु. 60/लीटर तेल प्रसंस्करित करने का शुल्क लेते हैं जिससे लगभग रु. 21-25 हजार प्रति माह अतिरिक्त आमदनी होती है जो वर्ष के 6 माह तक मिलती रहती है।

बीज उत्पादन एवं कृषि संयंत्रों का उपयोगः

श्री सिंह सब्जी मटर की उन्नतशील प्रजातियों के जनक बीजों से अपने प्रक्षेत्र पर आधारीय एवं गुणवत्तायुक्त बीज तैयार करते हैं जिसे क्षेत्र के किसानों तथा स्थानीय बाजार में बेचते हैं। बोवाई से पूर्व बीज के रासायनिक उपचार हेतु उन्होंने अपने प्रक्षेत्र पर एक आधुनिक संयंत्र भी लगाया है। बिजली चलित मोटर तथा चारा काटने वाली मशीन का उपयोग करते हैं जिससे श्रमिक अभाव की समस्या से निजात मिलती है।

जैविक खाद उत्पादन व प्रयोगः
जैविक खाद का वृहद स्तर पर उत्पादन एवं प्रयोग का विवरण निम्नवत हैः-

श्री सिंह वर्षों से खेती में रासायनिक उर्वरकों को प्रयोग करके फसल उत्पादन कर रहे थे। कुछ वर्षों से फसल उत्पादकता में स्थिरता अनुभव होने लगी। कुछ समय बाद जनपद में स्थित कृषि विज्ञान केन्द्र के विषय वस्तु विशेषज्ञों से इस संदर्भ में विचार विमर्श किया। वैज्ञानिकों ने मृदा परीक्षण आधार पर ही उर्वरक प्रयोग का सुझाव दिया। तत्पश्चात् श्री सिंह द्वारा सभी खेतों का मृदा परीक्षण कराया जिसमें जीवांश कार्बन 0.2 प्रतिशत से 0.4 प्रतिशत तक पाया गया। वैज्ञानिकों ने केंचुआ निर्मित जैविक खाद उपयोग का सुझाव भी दिया। श्री सिंह ने केन्द्र द्वारा आयोजित केंचुआ खाद उत्पादन विषय पर 5 दिवसीय प्रशिक्षण प्राप्त किया और इसके बाद कंेचुआ खाद उत्पादन अपने प्रक्षेत्र पर करना शुरू किया जो लगभग दो माह में तैयार हो गई। केंचुआ खाद डालने से फसलों की बढ़वार तथा उत्पादन में वृद्धि पायी गई तथा मिट्टी में जीवांश की अधिक मात्रा के साथ ही संरचनात्मक सुधार भी पाया गया।

अपनी प्रारम्भिक सफलता को देखने के बाद एवं केन्द्र के विषय वस्तु विशेषज्ञ के सुझाव पर श्री सिंह ने केंचुआ खाद उत्पादन को व्यावसायिक स्तर पर करने का निर्णय लिया ताकि यह उनके लिए रोजगार का एक सशक्त माध्यम बन सके। उन्होंने सन् 2006 में खादी एवं गा्रमोद्योग जनपद जालौन से रु. 3.0 लाख ऋण लिया। जिसमें वर्मी कम्पोस्ट हेतु 50 ग 50 मी. तथा 12 ग 50 मी. के दो शेड बनवाये तथा केंचुआ खाद उत्पादन कार्य किया। इससे प्रतिवर्ष उन्हें दो हजार कुन्तल खाद प्राप्त होती है जो वे विभिन्न सरकारी तथा गैर सरकारी संस्थाओं को रु. 400/कु. की दर से बेचते हैं। वर्तमान में उन्हें लगभग रु. 4.50 लाख की शुद्ध आय प्राप्त हो जाती है। श्री सिंह के पास कृषि के आधुनिक संयंत्रों जैसे ट्रैक्टर, हैरो, आदि भी हैं। अच्छी आमदनी होने से खादी ग्रामोद्योग का ऋण भुगतान भी चुकता कर दिया।

इन्होंने केंचुआ खाद अन्य किसानों जैसे नवल किशोर पटेल, निवासी कोंच; अनिल कुमार गोस्वामी, काशीपुरा; चन्द्रभान सिंह, मड़ोरी; परमार्थ सेवा संस्थान, माधौगढ़; उपनिदेशक कृषि, कानपुर नगर; डास्प परियोजना, सुल्तानपुर और अमेठी को बिक्री किया तथा उपरोक्त कृषक भी वर्मी कम्पोस्ट स्थापित करने के बाद लाभान्वित हो रहे हैं। सभी कृषकों ने मृदा स्वास्थ्य में गुणात्मक व संरचनात्मक सुधार के बारे में बात स्वीकारी है।

निष्कर्षः

सघन कृषि क्रियायें अपनाने के कारण कृषि उत्पादन बढ़ा। उद्यमों के कुशल एवं क्षमतापूर्ण उपयोग कर श्री सिंह ने प्रतिवर्ष औसतन 15-20 लाख रुपये की शुद्ध आय अर्जित की हैं। इसके अतिरिक्त 20-25 ग्रामीण युवाओं को भी रोजगार का अवसर भी प्राप्त हुआ। प्रायः यह कहा जाता है कि युवा खेती से पलायन कर रहे हैं परन्तु देखा यह जा रहा है कि पढ़े लिखे लोग आज अच्छी खेती करते हैं, साथ ही सरकारी नौकरी से वापस गाँव की ओर आकर अब लोग पुनः अपनी खेती को संभाल रहे हैं, जैसे कि वैज्ञानिक, बैंक कर्मचारी एवं अधिकारी, सैनिक, शिक्षक व बेरोजगार युवा। इस लेख से यह निष्कर्ष निकलता है कि युवाओं का गाँव से पलायन रुक सकता है तथा वैज्ञानिक तरीके से खेती करके उनकी जीविका गाँव स्तर पर ही सुनिश्चित कर आर्थिक दशा सुधारी जा सकती है। अच्छे फल, सब्जी, दूध एवं वातावरण का लाभ लोग ले सकते हैं तथा संसाधन संरक्षण, स्वावलंबन, अच्छा स्वास्थ्य व पर्यावरण संतुलन बनाये रखा जा सकता है।